गुरुकुल ५

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Wednesday 14 March 2012

मां

हर सुबह मेरी मां
यूं गुनगुनाती है
ये प्राची की किरणें
एक शाम लाती है
हर शाम की घंटी
एक गीत गाती है
उठ देख आ लल्ला
तेरी दीदी बुलाती है

लहरें समंदर की
या हो रेत की आंधी
बरसे गगन अग्नि
या रात अंधियारी
बन वृक्ष की छाया
सदा वो फैल जाती है

आंचल धरा का वो
सृजन बन फैल जाती है
मेरी मां गुनगुनाती है
मुझे लोरी सुनाती है

(चित्र गूगल से साभार)
रमाकांत सिंह 15/10/1997

21 comments:

  1. बहुत ही सुन्दर....
    तभी तो वो मां कहाती है...

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  2. बहुत ही बढ़िया

    माँ की कोई तुलना ही नहीं हो सकती क्योंकि वो जो होती है वैसा कोई नहीं होता।

    सादर
    -------
    ‘जो मेरा मन कहे’ पर आपका स्वागत है

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  3. माँ जैसा कोई हो नही सकता,
    माँ से बड़ा कोई हो नही सकता,
    सभी माताओं को सलाम करता हूँ
    माँ के चरण छू कर प्रणाम करता हूँ,....

    बहुत बढ़िया प्रस्तुति,भावपूर्ण सुंदर रचना,...

    RESENT POST...काव्यान्जलि ...: तब मधुशाला हम जाते है,...

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  4. बहूत हि सुंदर रचना है..
    सुंदर प्रस्तुती...

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  5. कम शब्‍दों में व्‍यापक और गहरे भाव.

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  6. गहरे भाव ... माँ तो अपने आप में सम्पूर्म श्रृष्टि है ...
    सुन्दर रचना ..

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  7. कोमल ,मीठी ,प्यारी सी सहज अभिव्यक्ति..प्रवाह में बहाती हुई..

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  8. कल 16/03/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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  9. सच तो यह है ..आह भी उठ थी जहाँ -
    माँ का दिल ढाल बनकर हो खड़ा जाता वहां .....

    .....इसी मर्म को आपने अपनी रचना में बहुत ही सुन्दरता से उभारा है

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  10. माँ को समर्पित सुंदर भाव !

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  11. भावों की बहुत सुंदर और सहज अभिव्यक्ति...

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  12. बहुत सुन्दर!!

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  13. सुन्दर प्रतीक, सुन्दर रचना!

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  14. आंचल धरा का वो
    सृजन बन फैल जाती है
    बहुत सुंदर और बहुत खुबसूरत.

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  15. सुन्दर प्रस्तुति.....बहुत बहुत बधाई...

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  16. लहरें समंदर की
    या हो रेत की आंधी
    बरसे गगन अग्नि
    या रात अंधियारी
    बन वृक्ष की छाया
    सदा वो फैल जाती है

    मां की ममता बरगद की शीतल छाया है।
    बहुत अच्छी कविता।

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  17. बात माँ की हो तो हर शब्द बोल उठता है.
    भावपूर्ण अभिव्यक्ति.

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