गुरुकुल ५

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Tuesday 28 May 2013

फैसला हम पर

नई सुबह के लिये करें आगाज़, दे दिशाएँ, फैसला हम पर


ज़िन्दगी चाहे कितनी बुरी हो
गुंजाईश है उसमें
उसे निरंतर रखें
और मौत कितनी भी हसीं हो
मौत के बाद
शरीर रह गया भौतिक?
गुंजाईश उसमें कहाँ?
रखें बरकरार?
कष्ट देने या पाने हेतु
शाश्वत है?
फैसला हम पर

*****
शादी, जन्म
जन्म जन्मान्तर का बंधन?
सेतु बनें  दो परिवार के
बांधें दो कुलों की मर्यादा
सन्तति, संतुलन हेतु
कोई तोड़े या टूट जाये
हों जर्जर या अंतिम साँसे
ढोयें मृत रिश्तों को?
दस्तूर निभाने के लिये?
सामाजिक आडम्बर में?
सुनहरे जीवन को त्याग?
फैसला हम पर

*****
ज़िन्दगी या रिश्ते
नदी की धारा होँ?
बहें मूल्यों संग मूल्यों के लिये
अटे धूल से और सड़े गले
भरा मैला सड़ांध
और मज़बूरी में सामर्थ्यहीन
बरसों से टंगे झूलते खूंटी में
रखें कब तक, किसके लिये?
नई सुबह के लिये
करें आगाज़?
दे दिशाएँ?
फैसला हम पर

ज़िन्दगी हम आप पर क्यूं ऐतबार करते हैं
रोज तन्हाई में भी आपका इंतजार करते हैं

**लोग जुड़ने के लिए होते है खोने के लिए नहीं
**रिश्ते जीने के लिए होते हैं ढ़ोने के लिए नहीं

२४ मई २०१३
चित्र गूगल से साभार
अंतिम दो लाइन तथागत ब्लॉग के सर्जक
श्री राजेश कुमार सिंह से साभार

11 comments:

  1. sahi bat kah .kavita ke madhayam se har phaisla ham rahta hai ..bahut uttam ...prastuti ...

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  2. अब फैसला हमको करना है ,बहुत उम्दा,लाजबाब प्रस्तुति,,

    Recent post: ओ प्यारी लली,

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  3. लोग जुड़ने के लिए होते है खोने के लिए नहीं
    रिश्ते जीने के लिए होते हैं ढ़ोने के लिए नहीं

    रिश्तों की सटीक विवेचना

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  4. सार्थकता लिये सशक्‍त प्रस्‍तुति ...
    सादर

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  5. आशावादी एप्रोच

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  6. जिन्‍दगी की धूप-छॉंव अनुभव हुई इस प्रस्‍तुति में। अच्‍छी लगी।

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    Replies
    1. धूप छांव बनी रहे तो रास्ता तय हो जाता है लेकिन धूप रेगिस्तान की तो?
      आजकल बादल दिखते नहीं नये पेड़ रोपने का चलन ख़तम हो गया
      और दूर तलक दरख़्त का नामोंनिशां नहीं

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  7. लोग जुड़ने के लिए होते है खोने के लिए नहीं
    **रिश्ते जीने के लिए होते हैं ढ़ोने के लिए नहीं
    sabhi satik rachnayen ...

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  8. सही समय पर सही फैसला है हम पर जो जरा सी चूक से कयामत ला देता है.बढ़िया कहा है..

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  9. रिश्ते जुड़ने और जोड़ने के लिए होते हैं टूटने या तोड़ने के लिए नहीं ...लेकिन
    आप ने कविता में जो बात उठायी है वही वर्तमान का सच है..समपर्ण का भाव अब कहाँ रह गया है इस भौतिकवादी युग में!

    भावों को शब्दों का खुबसूरत जामा पहनाया है आपने..
    बहुत अच्छी अभिव्यक्ति.

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