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Sunday 15 July 2012

पहेली



कभी मेरी सहेली बनकर
यदा-कदा पहेली बनकर
महानदी की धारा में
लहरों संग भंवर बन
मुखरित हो जाती हो

मैकल पर्वत श्रृखला सी
फैलकर ढलान में भी
एक दुसरे से सटकर
सम्मोहित कर जाती हो

और तुम कभी-कभी
गज गामिनी बन
निर्जन वन में विचरते
अपने ही सपनों के
कोमल कोपलों को
तोड़-मरोड़
रौंद-रौंद जाती हो?

क्यूं हिमखण्ड सी
विगलित शिखर में हो
अपना ही आंगन
बहा ले जाती हो

कभी-कभी
टूटता है धैर्य तुम्हारा?
पवन की रलता ले
स्वच्छंद उच्श्रृखल बन
अपने मंद झोंकों से
खुद का वजूद
शून्य में
छिन्न-भिन्न कर जाती हो

कभी सघन घन बन
पर्वत शिखर के
गिरि कंदराओं को भी
सिक्त कर जाती हो
ये विस्तार तुम्हारा
अथाह समुद्र सा
दूर-दूर तलक
और सिमटना कभी
सीप में मोती सा
कभी बदलना
स्वाति नक्षत्र के अमृत में
किसकी प्रतीति?

तब तुम्हें पाकर भी
बूझ नहीं पाता
फिर हर एक शै में
तेरा ही भ्रम
क्यूं हो जाता है?
और मैं यह कभी
जान ही नहीं पाया 
तुम मेरी कौन हो?

14.07.2012
चित्र गूगल से साभार

28 comments:

  1. अनजाने-सुहाने रिश्‍ते.

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  2. सहेली पहेली सी... कुछ रिश्ते ऐसे ही होते हैं...
    सिर्फ अहसास है ये रूह से महसूस करो.....कोई नाम ना दो
    बहुत खूबसूरत अहसास... आभार

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  3. कुछ रिश्ते ऐसे होते है
    जो अहसास से जुड़े होते है
    भावनाओ से बंधे होते है
    सुन्दर अहसास लिए कोमल भाव
    व्यक्त करती रचना:-)

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  4. क्यूं हिमखण्ड सी
    विगलित शिखर में हो
    अपना ही आंगन
    बहा ले जाती हो
    बहुत उम्दा....

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  5. सुन्दर अहसासों का समुन्द्र समेटे,किसी हिमखण्ड सा शीतलता लिए खुबसूरत सी अभिव्यक्ति....

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  6. और मैं यह कभी
    जान ही नहीं पाया
    तुम मेरी कौन हो?

    अभिनव सोच
    .एक भेद की बात बाबूसाहेब उपरोक्त प्रश्न अक्सर तब पूछा जाता जब जवाब मालूम हो

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  7. तब तुम्हें पाकर भी
    बूझ नहीं पाता
    फिर हर एक शै में
    तेरा ही भ्रम
    क्यूं हो जाता है?
    और मैं यह कभी
    जान ही नहीं पाया
    तुम मेरी कौन हो?
    अनुपम भाव संयोजित किए हैं आपने ..आभार

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  8. सुन्दर एहसास....
    अनुपम प्रस्तुति .....

    सादर
    अनु

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  9. आपकी लेखनी से जो निकलता है वह दिल और दिमाग के बीच खींचतान पैदा करता है। बिल्‍कुल नए सोच और नए सवालों के साथ समाज की मौजूदा पहेलियों (जटिलताओं) को उजागर किया है ।

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  10. आज तो आपकी कविता अप्रतिम है..
    शब्द ढूंढ रही हूँ कि क्या कहूँ !
    सादर

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  11. सुन्दर भाव में पिरोई
    बहुत सुन्दर रचना
    बेहतरीन:-)

    ReplyDelete
  12. सुन्दर भाव में पिरोई
    बहुत सुन्दर रचना
    बेहतरीन:-)

    ReplyDelete
  13. उत्कृष्ट लेखन ....
    भावों की सुंदर अभिव्यक्ति ......

    ReplyDelete
  14. कभी मेरी सहेली बनकर
    यदा-कदा पहेली बनकर

    वाह ...पहेली सी सहेली ..!!
    सुंदर रचना ..!!

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  15. कभी सघन घन बन
    पर्वत शिखर के
    गिरि कंदराओं को भी
    सिक्त कर जाती हो
    ये विस्तार तुम्हारा
    अथाह समुद्र सा
    दूर-दूर तलक
    और सिमटना कभी
    सीप में मोती सा
    कभी बदलना
    स्वाति नक्षत्र के अमृत में

    वाह ! बहुत सुंदर पंक्तियाँ और अनुपम भाव !

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  16. 'और सिमटना कभी
    सीप में मोती सा
    कभी बदलना'
    --
    क्यूं हिमखण्ड सी
    विगलित शिखर में हो
    अपना ही आंगन
    बहा ले जाती हो
    --
    वाह!बेहद खूबसूरत पंक्तियाँ !

    यह एक उत्कृष्ट रचना पढ़ी आज. अति सुन्दर .बधाई!

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  17. बेहद खूबसूरत लिखा है..सोच को एक राह दिखाती हुई..

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  18. तब तुम्हें पाकर भी
    बूझ नहीं पाता
    फिर हर एक शै में
    तेरा ही भ्रम
    क्यूं हो जाता है?
    और मैं यह कभी
    जान ही नहीं पाया
    तुम मेरी कौन हो?.....

    रमाकांत जी ये जानने की नहीं महसूस करने की चीज है .....:))

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  19. मेरा कमेन्ट दिखाई नहीं दे रहा ?स्पैम में तो नहीं चल गया?

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  20. कुछ रिश्ते ऐसे ही होते हैं...
    सिर्फ अहसास कराते है .....उनका कोई नाम नही होता ,,,,,

    RECENT POST ...: आई देश में आंधियाँ....

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  21. क्यूं हिमखण्ड सी
    विगलित शिखर में हो
    अपना ही आंगन
    बहा ले जाती हो
    ...... खूबसूरत पंक्तियाँ !

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  22. बहुत सुन्दर कोमल एहसास सुन्दर शब्द संयोजन की माला में गुंथी हुई प्यारी रचना बहुत पसंद आई

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